न त्वहं कामये राज्यं,न स्वर्गं न पुनर्भवम् ।
कामये दुखतप्तानां, प्राणिनामार्तनाशनम्।।
मैं राज्य, स्वर्ग और पुनः जन्म की कामना नहीं करता, दुख से संतप्त प्राणियों का संकट दूर हो, मात्र मेरी यही कामना है ।
हमारी सनातन संस्कृति वेद तथा वेदांगों पर आधारित है भारतवर्ष को विश्व में गुरु बनाने का श्रेय हमारे वेद, वेदांग(शिक्षा,कल्प, निरुक्त,व्याकरण,ज्योतिष,छन्द) शास्त्र(न्याय,सांख्य,योग,वैशेषिक,पूर्वमीमांसा,उत्तरमीमांसा) पुराण (अठारह पुराण तथा उपपुराण,उपौप पुराण) महाभारत,रामायण इत्यादि ग्रंथों को जाता है इनका अध्ययन अनुशीलन और इनके अनुसार जीवन चर्या हम सबको मानव से देवत्व की ओर ले जाती है। हमारे पूर्वज ऋषियों मुनियों ने तथा राजाओं ने भी अपने सनातन ज्ञान की सरणि में अग्रसर होकर अपना कल्याण साधन किया है ,इसके सहस्राधिक प्रमाण पुराणादि ग्रंथों में प्राप्त होते हैं।
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥
अर्थात् श्रेष्ठ पुरुष जैसा आचरण करता है,अन्य लोग भी वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण स्वरूप कार्य करता है, समस्त मनुष्य-समुदाय उसी के अनुसार अनुकरण करके आचरण करने लग जाते हैं। हमें भी अपने से श्रेष्ठ लोगों का अनुकरण करना चाहिए,इस समय पता नहीं बालकों का मन विपरीत दिशा में जा रहा है श्रेष्ठों का अनुकरण वे नहीं करना चाहते यही पतन का और दुख का कारण बनता है, आजकल हमारे नवयुवकों की दिनचर्या बिगड़ गयी है शयन के समय जागते हैं,जागरण के समय शयन करते हैं,खान पान ,रहन सहन, बोलने बताने, उठने बैठने का तरीका विपरीत हो गया है इसके कारण सनातन संस्कृति नष्ट हो रही है,जब किसी की संस्कृति नष्ट हो जाती है तो उसका अस्तित्व भी नष्ट हो जाता है, इसलिए अपने पहचान को बनाए रखने के लिए अपनी संस्कृति को बचाना ही चाहिए और यह जिम्मेदारी आपकी और हमारी है ,इसपर हम सबका ध्यान जाना चाहिए,अपने परित:ऐसा वातावरण बनाना चाहिए जिससे हमारे बच्चे अपने से बड़ों का आदर सम्मान करें उनकी चर्या का अनुकरण करें इसके लिए हम सबको समय से संस्कार और शिक्षा देना चाहिए तथा प्रयत्न पूर्वक वेद वेदांगादि ग्रंथों का अध्ययन अवश्य करना चाहिए।अपने संस्कार अपनी संस्कृति और अपनी संस्कृत भाषा को प्रयत्न पूर्वक बचाकर रखना है,संजोकर रखना है, प्रचार प्रसार भी करना है ,इसपर चलना भी है और आने वाली पीढ़ी के नवयुवकों को इसमें चलाना भी है इस जिम्मेदारी से कृपया आपसब दूर न हों यही निवेदन है।
आजकल के भौतिक युग में आर्थिक उन्नति की होड़ सी लगी है, प्रत्येक बाल, वृद्ध, स्त्री, पुरुष अधिक से अधिक धनोपार्जन करके भौतिक सुख संसाधनों की वृद्धि की अपेक्षा करता है, जबकि भौतिकता वास्तविक और स्थाई नहीं है, इससे पतन होता है , हमें भौतिकता के साथ-साथ आध्यात्मिकता की भी बहुत आवश्यकता है, जहां पर सुख और शांति प्राप्त हो, अध्यात्म ही सबका स्थाई अधिष्ठान है , अतः भौतिकवाद से ऊपर उठकर हमें ज्ञान प्राप्त करके अध्यात्म में आत्मतत्व जानने का प्रयत्न करना चाहिए। हमें चाहिए कि अपने प्राचीन गौरवशाली ज्ञान विज्ञान का अनुसंधान करें, वेद वेदांगादि का अध्ययन करके उनके द्वारा प्राप्त ज्ञान का आत्मसात करें और जीवन के परं लक्ष्य का साधन करें, क्योंकि बिना ज्ञान के मुक्ति संभव नहीं है (ऋते ज्ञानान्न मुक्ति:) ।
सर्वे भवंतु सुखिनः सर्वे संतु निरामया:।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मां कश्चिद् दुखभाग् भवेत्।।
।। हरि ओम्।।