विश्व साहित्य के सर्वप्राचीन साहित्य 'वेद' हैं जो कि अनादि और अपौरुषेय हैं। वेद साक्षात् कृतधर्मा ईश्वर के निःश्वास स्वरूप हैं। 'यस्य निःश्वसितं वेदाः'। ईश्वर प्रदत्त ज्ञान का प्रतिपादन करने वाले वेद ही हैं। 'विद्' ज्ञाने धातु से वेद की निर्मिति है। वेदों में आध्यात्मिक आधिदैविक आधिभौतिक के साथ-साथ ज्ञान-विज्ञान का समावेश है। वेद समस्त ज्ञान रत्नराशि के मूल सागर हैं। ये ब्रह्मनिष्ठ ऋषियों तथा मुनियों के तपोबल से अनुभव करके प्राप्त किए गये हैं। धर्मार्थकाम मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों का प्रतिपादन वेद ही करते हैं और ये वेद अपने अङ्गों के द्वारा स्वरूपित होते हैं। अतः वेद ज्ञान हेतु वेद के अंगों अर्थात् वेदाङ्गों का ज्ञान आवश्यक है। "अङ्ग्यन्ते ज्ञायन्ते अमीभिरिति अङ्गानि" इस व्युत्पत्ति के अनुसार किसी तत्त्व ज्ञान को समझने के लिए जिन उपकरणों की आवश्यकता होती है वे अङ्ग कहे जाते हैं। वेदों के अर्थ ज्ञान और कर्मकाण्ड के प्रतिपादन में समग्र रूप से सहायक शास्त्र ही वेदाङ्ग हैं। वेदाङ्ग छः प्रकार के होते है। शिक्षा, कल्प, निरुक्त, व्याकरण, छन्द तथा ज्योतिष "ब्राह्मणो निष्कारणो धर्मो षडङ्गो वेदोऽधयेयो ज्ञेयश्च" अर्थात् ब्राह्मण का निष्कारण धर्म है कि वह षडंगों सहित वेद का अध्ययन करे।
'शिक्षा घ्राणं तु वेदस्य' शिक्षा वेद के नाक हैं। जिस प्रकार सौन्दर्यशाली पुरुष बिना नाक के सुन्दर नहीं लगता, उसी प्रकार बिना शिक्षा के वेदों का सौन्दर्य भी विकृत हो जाता है, अतः वेदज्ञान के लिए सर्वप्रथम शिक्षा का ज्ञान अति आवश्यक है।
स्वरवर्णाद्युच्यारण प्रकारो यत्र शिक्ष्यते उपदिश्यते सा शिक्षा अर्थात् स्वर तथा वर्णादि के उच्चारण की विधि जिसके माध्यम से बताई जाती है वह शिक्षा है। ऋग्वेदादि की ऋचाओं (मंत्रों) का विशुद्ध उच्चारण शिक्षा के अध्ययन से ही सम्भव है।
अथ शिक्षां व्याख्यास्यामः-वर्णः स्वरः मात्रा, बलम्, साम, संतान इत्युक्तः (तैत्तिरीयोपनिषद्) अर्थात् वर्ण इस पद से अकरादि का स्वर से उदात्तानुदात्तादि का, मात्रा से ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत का बल से स्थान, प्रयत्न का, साम से निषाद इत्यादि स्वर का और संतान से विकर्षण का ग्रहण किया जाता है यही शिक्षा का संक्षेपतः प्रयोजन भी है। वेदों में स्वर वर्णादि के उच्चारण में भेद होने से अर्थ परिवर्तन हो जाता है अतः यथा रूप वेद उच्चारण को बताने वाला अङ्ग शिक्षा है। जिसे वेद का घ्राण (नाक) कहा जाता है।
कल्पो वेदविहितानां कर्मणामानुपूर्व्येण कल्पना शास्त्रम् अर्थात् वेद प्रतिपादित कर्मों के विचारों को भली-भाँति प्रस्तुत करने वाला शास्त्र 'कल्प' है, और इसे वेद का हाथ कहा जाता है (हस्तौ कल्पोऽथ पठ्यते)। जिन यज्ञादि विधियों या विवाहादि कर्मों का प्रतिपादन वैदिक ग्रन्थों में किया गया है, उन सूत्र ग्रन्थों का नाम कल्प है।
विधि, नियम, न्याय, कर्म और आदेश के अर्थ में प्रयुक्त परिव्याप्ति ही कल्प का विशिष्ट तात्पर्य है। 'सूत्र' संक्षेप में कहा गया सारगर्भित वाक्य है जिसके गर्भ में अति महत्त्वपूर्ण ज्ञान विद्यमान रहता है।
अतः कल्पसूत्र समवाय रूप से एक नए युग के सूत्रधार कहे जा सकते हैं। कल्पसूत्रों के तीन भेद किए गए हैं- श्रौत सूत्र, गृह्य सूत्र और धर्मसूत्र, कुछ विद्वान शुल्व सूत्र को इसका चौथा भेद मानते हैं। श्रौत सूत्र में वेदोक्त चौदह यज्ञों के सम्पादन की विधि कही गई है। ऋग्वेद के आश्वलायन और शांख्यायन दो श्रौतसूत्र हैं। गृह्यसूत्र के आश्वलायन और पारस्कर गृह्यसूत्र प्रसिद्ध हैं। इसी प्रकार सभी वेदों के अलग-अलग गृह्यसूत्र हैं। धर्मसूत्रों में चारों वर्णों के कर्त्तव्य और उनके व्यवहार तथा राजधर्म का मुख्य रूप से वर्णन है। मानव धर्मसूत्रानुसार ही मनुस्मृति की रचना हुई। कुछ धर्मसूत्र प्राप्त होते हैं, जिनमें गौतम धर्मसूत्र, बौधायन धर्मसूत्र, आपस्तम्ब धर्म सूत्र, हिरण्यकेशि धर्मसूत्र, वसिष्ठ धर्मसूत्र, वैखानस धर्मसूत्र, विष्णुधर्मसूत्र प्रमुख हैं।
"मुखं व्याकरणं स्मृतम्" व्याकरण को वेद का मुख कहा गया है। "रक्षोहागमलघ्वसंदेहाः व्याकरण प्रयोजनम्" रक्षा, ऊह, आगम, लघु और असंदेह- ये व्याकरण अध्ययन के प्रयोजन हैं। अर्थात् लोप, आगम और वर्ण के विकारों के ज्ञान से वेदों की रक्षा हो सकती है। अतः वेद रक्षा सर्वप्रथम वेदज्ञ का कर्त्तव्य है। वेदोक्त मंत्र लिङ्ग, विभक्तियों में ग्रथित नहीं है, अतः ऊह अर्थात् तर्क वितर्क द्वारा लिङ्गविभक्ति का व्यतिहार करके नए पदों की संकल्पना वैयाकरण ही कर सकता है।
आगम अर्थात् श्रुति (वेद) ही प्रमाण हैं, यह मानकर अध्ययन करना चाहिए। देवगुरु वृहस्पति द्वारा दिव्य सहस्र वर्ष पर्यन्त इन्द्र को पढ़ाया गया तब भी विद्या का अन्त नहीं हुआ। अतः लघु अर्थात् संक्षेप करके सारज्ञान को समझने की आवश्यकता होती है। असंदेह शब्दज्ञान में समासादि के ज्ञान द्वारा तात्पर्यार्थ को समझना अत्यंत कठिन है जो कि व्याकरण से सम्भव है, उसी से संदेह की निवृत्ति होती है। क्योंकि एक शब्द का सम्यक् रूप से ज्ञान करके शास्त्रानुसार उसका प्रयोग करना जान लेने पर इस लोक में तो सफलता मिलती ही है, साथ ही स्वर्ग लोक में भी सफलता प्राप्त होती है। "एकः शब्दः सम्यक् ज्ञातः शास्त्रान्वितः सुप्रयुक्तः स्वर्गे लोके च कामधुग् शब्ति। ऐन्द्रादि कुल आठ व्याकरण प्राप्त होते हैं।
"निरुक्तं श्रोत्रमुच्यते" के अनुसार निरुक्त को वेद का कान कहा जाता है। अर्थावबोधे निरपेक्षतया पदजातं यत्रोक्तं तन्निरुक्तं (सायण)। अर्थात् अर्थ ज्ञान में निरपेक्षता पूर्वक जहाँ पदों की व्युत्पत्ति की गई है वह निरुक्त है। निःशेष अर्थात्-समग्र रूप से जो कहा गया हो वह निरुक्त है। निरुक्त वेद के आन्तरिक स्वरूप को दिखाता है। यह गद्य शैली में लिखित है। वेदों के अर्थ का यथार्थ रूप से ज्ञान कराने में निरुक्त ही समर्थ है। निरुक्त को वैदिक शब्द कोष भी कह सकते हैं। निरुक्त महर्षि यास्क द्वारा विरचित है। दुर्गाचार्य जी के मत से निरुक्त ग्रन्थों की संख्या चौदह थी, किन्तु यास्क का निरुक्त ही सम्प्रति उपलब्ध होता है। निरुक्त में बारह अध्याय तथा परिशिष्ट में दो अध्याय कुल चौहद अध्याय हैं। निरुक्त शब्द का अर्थ व्युत्पत्ति होता है। प्रत्येक शब्द की कोई-न-कोई धातु होती है, अतः निरुक्तकार शब्दों की व्युत्पत्ति प्रदर्शित करके धातु के साथ विभिन्न प्रत्ययों का निर्देश करते हैं।
छद् धातु से छन्द शब्द निर्मित होता है। छन्दांसिछन्दः अर्थात् छन्द वेद के आवरण हैं। "छन्दः पादौ तु वेदस्य" अर्थात् छन्द वेद का पैर है। जिस प्रकार पाद रहित व्यक्ति लंगड़ा होता है उसी प्रकार छन्द विहीन वेद पंगुवत् आगे नहीं बढ़ सकता, अतः वेद मंत्रों के उच्चारण और उसकी परम्परा को आगे बढ़ाने में छन्द का महत्त्वपूर्ण स्थान है। वेद के प्रत्येक सूक्त में ऋषि छन्द तथा देवता का ज्ञान आवश्यक माना गया है। जैसा कि कहा गया है "यो ह वा अविदितार्षेयच्छन्दो दैवतब्राह्मणेन मंत्रेण याजयति वा अध्यापयति वा स्थाणुं वर्च्छति गर्ते वा पात्यते वा पापीयान् भवति।" (कात्यायन सर्वानुक्रमणी 1/1)
अर्थात् जो वेदपाठी या यज्ञकर्त्ता छन्द ऋषि और देवता के ज्ञान से रहित होकर मंत्र का अध्ययन अध्यापन या यज्ञ करता है उसका कार्य निष्फल हो जाता है। पिङ्गलाचार्य कृत ‘‘छन्दः सूत्रम्’’ इसका आधार ग्रन्थ है। यह सूत्र रूप में आठ अध्याय वाला है। बिना छन्द के वाणी उच्चरित नहीं होती (नाच्छन्दासि वागुच्चरति दुर्गाचार्य) तथा (छन्दो हीनो न शब्दोऽस्ति न छन्दः शब्द वर्जितम्- भरतमुनि) अतः एक अक्षर से 104 अक्षर तक के छन्दों का विधान किया गया है। वैदिक छन्दों की संख्या 26 है जिनमें 5 छन्दों को प्रयोग वेद में नहीं हुआ। गायत्री, उष्णिक्, अनुष्टुप्, वृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप् जगती ये सात प्रमुख वैदिक छन्द हैं। इन्हीं से वैदिक एवं बहुत से लौकिक छन्दों की सृष्टि हुई है।
"ज्योतिषामयनं चक्षुः" ज्योतिष वेद का नेत्र कहा गया है। बिना ज्योतिष के वेद की अन्धता सिद्ध होती है बिना नेत्र के जिस प्रकार कोई भी प्राणी कुछ देख नहीं सकता बिना सहारे के आगे बढ़ नहीं सकता उसी प्रकार वेद की समृद्धि के लिए तथा वेद को तत्त्वतः देखने के लिए ज्योतिष का ज्ञान परमावश्यक है।
वेद का प्रयोग यज्ञ कर्म सम्पादन के लिए है और यज्ञ शुभ मुहुर्त्त में हों इसके लिए शुभकाल की आवश्यकता होती है चूँकि ज्योतिष कालविधान वाला शास्त्र है, अतः जो ज्योतिष को जान लेता है वह अवश्य ही वेद को जान लेगा अतः ज्योतिष का ज्ञान वेद ज्ञान से न्यूनतर नहीं है।
प्राचीन काल में सभी वेदों का पृथक्-पृथक् ज्योतिष शास्त्र था, सम्प्रति सामवेद का ज्योतिष अप्राप्त है। शेष- ऋग्वेद का आर्च ज्योतिष (36 पद्यों में), यजुर्वेद का याजुष ज्योतिष (39 पद्यों में) तथा अर्थवेद का आथर्व ज्योतिष (162 पद्यों का) लगधाचार्य की रचना के रूप में प्राप्त होता है। सम्प्रति ज्योतिष में तीन स्कन्ध- सिद्धान्त, संहिता तथा होरा रूप में विकसित हैं और ज्योतिष का अपना एक वृहद् स्वरूप है।